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बुधवार, 21 सितंबर 2011

बिहार का महत्वपूर्ण पर्व-त्यौहार :-


पर्व-त्यौहार हमारी खुशियों का दिन होता है। बिहार त्यौहारों की दृष्टि से समृद्ध प्रदेश है। बिहार राज्य में मनाये जाने वाले पर्व एवं त्यौहार इस प्रकार  हैं -

मकर संक्रान्ति-  
मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है जब इस पर्व को मनाया जाता है ।इस पर्व को धान की नई फसल का पर्व कहा जाता है। प्रायः चौदह अथवा पन्द्रह जनवरी को यह पर्व मनाया जाता है। इसी दिन लोग नदी अथवा तालाब में स्नान कर दही और चूड़ा एवं तिलकूट खाते हैं। तिल संक्रान्ति के बाद में लोग खिचड़ी खाते हैं। पश्‍चिम बंगाल में इस दिन गंगासागर में मेला लगता है।

बसन्त पंचमी(सरस्वती पूजा)- 

सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैंविद्या की देवी सरस्वती का यह पर्व माघ शुक्‍ल पंचमी के दिन धूमधाम से मनाया जाता है। सरस्वती पूजा के तीन दिन बाद उसकी मूर्तियों को नदी या तालाब में वसर्जित कर दी जाती है।

बसंत पंचमी की कथा-

सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है।
विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमंडल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु। अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और ऐसे भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि आज तक जारी है। वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नई उमंग से सूर्योदय होता है और नई चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है, पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करता है। पौराणिक महत्व इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गए, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आए थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है। ऐतिहासिक महत्व वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया। चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान। पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंद्रबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। ( यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी)।
रामनवमी- 

 विनम्र और सौम्य प्रवृति के प्रतीक मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के जन्मदिन के सुअवसर पर चैत्र शुक्ल मास के नवमी तिथि को रामनवमी का विशेष पर्व मनाया जाता है. पौराणिक कथानुसार आज ही के दिन त्रेता युग में रघुकुल शिरोमणि महाराज दशरथ के यहां अखिल ब्रह्माण्ड नायक भगवान विष्णु ने पुत्र के रूप में जन्म लिया था. भगवान विष्णु के अवतार माने जाने वाले श्रीराम को भक्तगण उनके सुख-समृद्धि, पूर्ण व सदाचार युक्त शासन के लिए याद करते हैं. यह परम पवित्र त्यौहार अयोध्या सहित भारत के सभी भागों में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन बड़ी संख्यां में श्रद्धालु श्री राम की जन्मभूमि अयोध्या आते हैं और प्रातःकाल सरयू नदी में स्नान कर भगवान के मंदिर में जाकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करते हैं. इस पावन अवसर पर भक्तगण पूरे दिन रामायण का पाठ करते हैं. अयोध्या में इस दिन हर्षोल्लास पूर्वक भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और भक्त हनुमान की रथयात्रा निकाली जाती है, जिसमें हजारों की संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं
 इन्हीं राम के भक्‍त हनुमान की पूजा की जाती है। मन्दिर, आँगन एवं पवित्र स्थानो पर झण्डा लगाते हैं। राम नवमी के शुभ अवसर पर जुलुस निकाला जाता है।

शिवरात्रि-

 शिव एवं पार्वती के विवाह का यह पर्व फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष में मनाया जाता है। महिलाएँ इस दिन व्रत को रखती हैं और शिव मन्दिर में जाकर शिव पूजन करती हैं।


होली-



 रंग गुलाल का पर्व होली फाल्गुन पूर्णिमा यानि चैत्र के पहले दिन धूमधाम से मनाया जाता है। इसी दिन से नववर्ष का आगमन हो जाता है। यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। इसी दिन होलिका का दहन भी किया जाता है।

रक्षाबन्धन-
 


यह भाई-बहन का त्यौहार है। भाई-बहनों का यह पर्व श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहने भाईयों को कलाई में राखी बाँधती हैं। भाई-बहनों को रक्षा का वचन देते हैं। इस दिन खीर, सेवई, घेवर लड्डू आदि खाते हैं। ब्राह्मण लोग भी अपने यजमानो के हाथों में राखी बाँधते हैं।

कृष्णाजन्माष्टमी- 



भाद्र मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यह त्यौहार भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रुप में मनाया जाता है। इसी दिन आधी रात को भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में पैदा हुए थे।


तीज- 

यह बिहार का प्रमुख पर्व है जो विवाहिता स्त्रियों के लिए होता है जिनके पति जीवित हों। इस दिन महिलाएँ उपवास रखती हैं, पार्वती की पूजा करती हैं तथा अपने पति के दीर्घ जीवन की कामना करती हैं।


जिऊतिया- 
यह सन्तावती महिलाएँ अपने बच्चों के दीर्घ जीवन एवं सुख-समृद्धि के लिए मनाते हैं। इस पर्व को आश्‍विन माह के शुक्‍ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है।


विश्‍वकर्मा पूजा- 

यह लोहे (यन्त्र) का काम करने वालों का पर्व है। इस दिन भगवान विश्‍वकर्मा की पूजा की जाती है।


पीडिया-
 लड़कियों का पर्व है जो गोवर्धन पूजा के दिन प्रारम्भ होकर एक माह तक चलता है।


दीपावली- 

यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को हिन्दू और जैनियों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है। यह रोशनी एवं आतिशबाजी का पर्व है। हिन्दू लोग राम की रावण पर विजय के उपरान्त अयोध्या आगमन के रुप में मानते हैं, जबकि जैनी लोग अपने २४वें तीर्थंकर श्री महावीर की निर्माण दिवस के रुप में मनाते हैं।
वैश्‍य एवं व्यापारी लोग इसी दिन से नए खाते बही को बदलते हैं। नए बर्तन को खरीदते हैं। लक्ष्मी एवं गणेश की पूजा की जाती है। घरों में पकवान एवं मिठाई बनती हैं। नए वस्त्र को पहनकर आतिशबाजी व पटाखे छुड़ाते हैं तथा रात्रि में दीपक जलाते हैं।


गोवर्धन- 

दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्‍ल प्रथमा को यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन मन्दिरों में अन्‍नकूट की पूड़ी व सब्जी तैयार होती है। इसी दिन गोवर्धन की पूजा की जाती है। पशु क्रीडा एवं कुश्‍ती का आयोजन किया जाता है।


देवोत्थान- 

यह पर्व कार्तिक मास की शुक्‍ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। बिहार के लोग सांयकाल के समय गन्‍ना, गुड़, शकरकन्द आदि से भगवान की पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन देव और भगवान विष्णु चार मास के शयन के पश्‍चात्‌ उठते हैं।


छठ पूजा- 


श्रद्धा एवं पवित्रता का पर्व छठ बिहार का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रीय पर्व है। यह कार्तिक और चैत्र दोनों माह में षष्ठी को मनाया जाता है। इस पर्व में अस्त होते एवं उदय होते सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है।


महालया-

 यह आश्‍विन के कृष्ण पक्ष को पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष के रुप में १५ दिनों तक मनाया जाता है। हिन्दू अपने पितरों को श्राद्ध और तर्पण करते हैं तथा अपने पितरों का पिण्डदान करते हैं।


दशहरा-


 बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा पूरे बिहार में धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व आश्‍विन महीने के शुक्‍ल पक्ष में पहली से दशमी तिथि तक मनाया जाता है। इस दौरान माँ दुर्गा की पूजा-अर्चना की जाती है।


दवात पूजा- 

यह पर्व कायस्थ लोगों द्वारा विशेष रुप से मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्‍ल पक्ष के दिन भगवान चित्रगुप्त की पूजा की जाती है।


भातृ द्वितीया-


 इस त्यौहार को भैया दूज भी कहा जाता है। इस त्यौहार को लड़कियाँ और महिलाएँ अपने भाइयों को सुख-समृद्धि के लिए कार्तिक शुक्‍ल द्वितीया को मनाती हैं। बहन को भाई के प्रति स्नेह और श्रद्धा का भाव दिखने को मिलता है।

अनन्त चतुर्दशी- 


यह पर्व भादों मास के शुक्‍ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा का आयोजन होता है। लोग अनन्त देवता को प्रतीक के रुप में अपनी बाँह में अनन्त डोरा बाँधता हैं।

गण गौरी पर्व-

 यह पर्व बिहार में रहने वाले राजस्थानी लोगों द्वारा मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रुप से स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है। जिसमें गौरी की पूजा की जाती है तथा गौरी की शोभा यात्रा निकाली जाती है।

मधु श्रावणी- 


यह पर्व मिथिलांचल में नवयुवतियो द्वारा विशेष रुप से मनाया जाता है। इसका आरम्भ नागपंचमी से शुरु होता है। लोग घरों को सजाने-संवारने का काम वृहद पैमाने पर करते हैं।

सतुआन-


 यह पर्व मेघ संक्रान्ति के रुप में मनाया जाता है। यह चना फसल कटने के बाद मनाया जाता है।

चौका चन्दा- 

यह भादों मास के शुक्‍ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह मुख्यतः प्राथमिक छात्राओं का पर्व है।

सामा-चकेवा-
 मिथिलांचल में भैया दूज के समान लड़कियों द्वारा कार्तिक माह में नौ दिनों तक मनाया जाता है ।
मिथिला का प्रसिद्ध   उत्सव  सामा-चकेवा का व्यापक  प्रचार  प्रसार जरुरी है , संस्कृति के प्रति मिथिला  का नजरिया  देश  समाज में व्यापक रूप  से पहुचे  तो अच्छा होगा |

वट सावित्री-

यह  व्रत मिथिलांचल की महिलाएँ जेठ मास की अमावस्या को मनाती हैं।
वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष अमावस्या को सम्पन्न किया जाता है,यह स्त्रिओं का महत्वपूर्ण व्रत है,इस दिन सत्यवान सावित्री तथा यमराज की पूजा की जाती है,सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव स अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से छुडवाया था।

विधान-

वट वृक्ष के नीचे की मिट्टी की बनी सावित्री और सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यम की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करनी चाहिये,तथा बड की जड में पानी देना चाहिये,पूजा के लिये जल मौली रोली कच्चा सूत भिगोया हुआ चना फ़ूल तथा धूप होनी चाहिये,जल से वट वृक्ष को सींच कर तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन परिक्रमा करनी चाहिये,इसके पश्चात सत्यवान सावित्री की कथा सुननी चाहिये,इसके पश्चात भीगे हुये चनों का बायना निकाल कर उस पर यथाशक्ति रुपये रखकर अपनी सास को देना चाहिये,तथा उनके चरण स्पर्श करना चाहिये।

कथा-

मद्र देश के राजा अश्वपति ने पत्नी सहित सन्तान के लिये सावित्री देवी का विधि विधान पूर्वक व्रत तथा पूजन करके पुत्री होने का होने का वर प्राप्त किया,सर्व गुण सम्पन्न देवी सावित्री ने पुत्री के रूप में अश्वपति के घर कन्या के रूप में जन्म लिया,कन्या युवा होने पर अश्वपति ने अपने मंत्री के साथ सावित्री को अपना पति चुनने केलिये भेज दिया,सावित्री अपने मन के अनुकून वर का चयन कर जब लौटी तो उसी दिन देवर्षि नारद उनके यहां पधारे,नारद जी के पूछने पर सावित्री ने कहा " महाराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हे मैने अपने पति के रूप में वरण कर लिया है,",नारद जी ने सत्यवान और सावित्री के ग्रहों को गणना कर अश्वपति को बधाई दी,तथा सत्यवान के गुणों की भूरि भूरि प्रसंसा की और बताया कि सावित्री के बारह वर्ष की आयु होने पर सत्यवान की मृत्यु होजायेगी। नारद जी की बात सुनकर अश्वपति का चेहरा मुर्झा गया,उन्होने सावित्री से किसी अन्य को अपना पति चुनने की सलाह दी,परन्तु सावित्री ने उत्तर दिया "आर्य कन्या होने के धर्म से जब मैं सत्यवान का वरण कर चुकी हूँ,तो अब वे चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु मैं किसी अन्य को अपने ह्रदय में स्थान नही दे सकती",सावित्री ने नारद जी से सत्यवान की म्रुत्यु का समय ज्ञात कर लिया,दोनो का विवाह हो गया,सावित्री अपने स्वसुर परिवार के साथ जंगल में रहने लगी,नारदजी द्वारा बताये हुये दिन से तीन दिन पूर्व से ही सावित्री ने उपवास शुरु कर दिया,नारद जी द्वारा निश्चित तिथि को जब सत्यवान लकडी काटने के लिये चला,तो सास स्वसुर से आज्ञा लेकर वह भी सत्यवान के साथ चल दी,सत्यवान वन में पहुंचकर लकडी काटने के लिये वृक्ष पर चढा,वृक्ष पर चढने के बाद उसके सिर में भयंकर सिर में पीडा होने लगी,वह नीचे उतरा,सावित्री ने उसे बड के पेड के नीचे लिटा कर उसका सिर अपनी जांघ पर रख लिया,देखते देखते उसकी मृत्यु हो गयी,और यमराज सत्यवान के प्राण लेकर चल दिये,सत्यवान के मृत शरीर को बड के पेड के नीचे लिटाकर सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चल दी,पीछे आती हुई सावित्री को देखकर यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया,इस पर वह बोली जहां पति है वहीं पत्नी का रहना धर्म है,यही धर्म है और यही मर्यादा,सावित्री की धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज ने सावित्री से कहा कि पति के प्राणों के अलावा कुछ भी मांगलो,सावित्री ने अपने स्वसुर और सास की आंखों की ज्योति और उनकी दीर्घायु को मांगा,यमराज ने तथास्तु कह कर आगे चल दिये,सावित्री यमराज के पीछे पीछे चलती रही,यमराज ने सावित्री को लौत जाने को फ़िर कहा,लेकिन सावित्री ने कहा कि पति के बिना नारी के जीवन की कोई सार्थकता नही है,यमराज ने सावित्री के पति धर्म से प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिये कहा,इस बार उसने अपने स्वसुर का खोया हुआ राज्य मांगा,यमराज ने तथास्तु कहा और आगे चल दिये,सावित्री अब भी यमराज के पीछे पीछे चलती रही,यमराज ने कहा कि पति के प्राणों के अलावा जो भी मांगना है,आखिरी बार मांगलो और लौट जाओ,सत्यवान के प्राण वापस करना उनके बस की बात नही है,इस बार सावित्री ने अपने को सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान मांगा,यमराज ने तथास्तु कहा और आगे चल दिये,सावित्री फ़िर भी पीछे पीछे चलती रही,इस बार यमराज ने क्रोध में आकर कहा कि जब मैने आखिरी बार कह दिया कि अब मैं कुछ नही दे सकता तो तुम वापस क्यों नही जातीं,सावित्री ने हाथ जोड कर यमराज से कहा,कि महाराज ! आपने मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का आशीर्वाद दिया है,लेकिन बिना पति के मैं मां किस प्रकार से बन सकती हूँ,इसलिये आप अपने तीसरे वरदान को पूरा करने के लिये अपना कहा पूरा कीजिये,सावित्री की धर्मनिष्ठा ज्ञान पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राण अपने पाश से मुक्त कर दिये,सावित्री सत्यवान के प्राणों लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुंची,वहां पर जंगली जानवरों और अन्य प्रकार से किसी प्रकार से सत्यवान के शरीर की क्षति न हो,इसलिये वट वृक्ष पर रहने वाले जीव जन्तुओं ने उनके शरीर के चारों ओर पतली पतली शिरायें लपेट दीं थी,सावित्री ने उन शिराओं को वट वृक्ष के चारों ओर लपेट कर उस वृक्ष की तीन बार परिक्रमा की और सत्यवान के प्राण जो चने की शक्ल के थे,को अपने मुंह में डालकर उनको मुंह से सत्यवान के मुंह के अन्दर फ़ूंका,सत्यवान जीवित होकर उठ बैठे,सावित्री अपने सास और स्वसुर के पास पहुंची तो उनकी आंखों की ज्योति वापस आ गयी थी,उसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया,आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रों की माता बनी और एक हजार साल तक अपना जीवन निकालने के बाद पति पत्नी एक साथ परलोक सिधारे,इस प्रकार से चारों दिशाये सावित्री के पतिव्रत धर्म से गूंज उठीं,जैसे धर्मराज ने सावित्री का सुहाग बचाया उसी प्रकार से सभी का सुहाग वे अमर रखें।



डोरा- 

होली पर्व मनाने के बाद हर रविवार (एक माह तक) मिथिलांचल की महिलाएँ मनाती हैं। इस दिन वह सन्तोषी माँ की पवित्र कहानी कहती हैं और अपनी बाँह में डोरा भी बाँधती हैं।


इन्द्र पूजा- 


यह पर्व बिहार में भादों माह के शुक्‍ल पक्ष एकादशी से आश्‍विन कृष्ण पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इसमें ९ दिनों तक भगवान इन्द्र की पूजा की जाती है। अन्तिम दिन वसुन्धरा को विसर्जन कर दी जाती है।


क्रिसमस-


क्रिसमस शब्‍द का जन्‍म क्राईस्‍टेस माइसे अथवा ‘क्राइस्‍टस् मास’ शब्‍द से हुआ है। ऐसा अनुमान है कि पहला क्रिसमस रोम में 336 ई. में मनाया गया था। यह प्रभु के पुत्र जीसस क्राइस्‍ट के जन्‍म दिन को याद करने के लिए पूरे विश्‍व में यह त्यौहार प्रत्येक वर्ष दिसम्बर महीने की २५ तारीख को सम्पन्‍न होता है। इसी दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था। 
यह ईसाइयों द्वारा मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण पर्व है।

 गुरु गोविन्द सिंह जन्म दिवस-


गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन 1666 ई.(23 पौष सुदी सातवीं 1723) को पटना साहिब, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोविंद राय' था। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। सिक्खों के दसवें गुरु" गुरु गोविन्द सिंह के जन्म दिवस" जन्म स्थली पटना के हरमन्दिर में मनाया जाता है। हरमन्दिर में पौष शुक्‍ल सप्तमी को विशाल समारोह का भव्य आयोजन किया जाता है।

महावीर जयन्ती-
मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले महापुरुष भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी तिथि को बिहार में लिच्छिवी वंश के महाराज 'श्री सिद्धार्थ' और माता 'त्रिशिला देवी' के यहां हुआ था। जिस कारण इस दिन जैन श्रद्धालु इस पावन दिवस को 'महावीर जयन्ती' के रूप में परंपरागत तरीके से हर्षोल्लास और श्रद्धाभक्ति पूर्वक मनाते हैं। बचपन में भगवान महावीर का नाम वर्धमान था। जैन धर्मियों का मानना है कि वर्धमान ने कठोर तप द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जिन अर्थात विजेता कहलाए। उनका यह कठिन तप पराक्रम के सामान माना गया, जिस कारण उनको महावीर कहा गया और उनके अनुयायी जैन कहलाए।  यह जैन लोग अन्त्तिम प्रवर्तक भगवान महावीर के जन्म दिवस के रुप में मानते हैं। इनका बिहार में चैत्र शुक्‍ल पक्ष त्रियोदशी में जन्म हुआ था।


बुद्ध जयन्ती-



 वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयन्ती पर्व श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।


अक्षय तृतीया/अक्षय नवमी-


 अक्षय तृतीया वैशाख माह के शुक्‍ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन सार्वजनिक रुप से शर्बत पीते और पिलाते हैं। जबकि अक्षय नवमी मिथिलांचल तथा भोजपुरी में कार्तिक शुक्‍ल पक्ष नवमी को मनाया जाता है। इसी दिन महिलाएँ शाम के ऑवला के नीचे सामूहिक रुप से खाना खाती  है |
 पुराणों के अनुसार, आंवला और तुलसी के वृक्ष में विष्णुजी का वास होता है, इसलिए ये अक्षय हैं। यह भी मान्यता है कि ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि जो भी इस वृक्ष के नीचे भोजन करेगा, दीर्घायु होगा। चरक संहिता में भी आंवले का माहात्म्य मिलता है। आंवला खाने से रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। एक कथा के अनुसार, एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन के दौरान विष्णु और शिव की पूजा करना चाहती थीं। वे उस वस्तु की तलाश में जुट गई, जो दोनों को प्रिय हो। अंतत: उन्हें आंवला वृक्ष मिला, जिसमें तुलसी व बेल पत्र दोनों के गुण थे। इस वृक्ष की उन्होंने पूजा की और उसके नीचे प्रसाद ग्रहण किया। तब से यह वृक्ष पूजा जाने लगा।


कोजगरा- 


यह पर्व मिथिलांचल में आश्‍विन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें सिर्फ ब्राह्मण समुदाय ही लक्ष्मी व गणेश की पूजा करते हैं। यह पर्व नव-विवाहित वरों के लिए खास महत्वपूर्ण है।
मिथिला के इलाके में यह मान्यता है कि कोजगरा के दिन जिस लड़के की शादी होती है और पहला कोजगरा होता है, उस लड़के को धन धान्य से परिपूर्ण करने के लिये लक्ष्मी की पूजा अर्चना की जाती है। लड़का के ससुराल पक्ष से पान-मखान, मिठाई, कपड़ा सहित अन्य सामानों के साथ लोग आते हैं, और समाज के लोगों को मिठाई खिलाकर मुंह भी मीठा किया जाता है। इसी दिन मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना भी की जाती है।

ओणम-



 यह बिहार में रहने वाले केरलवासी द्वारा अगस्त-सितम्बर में चार दिनों तक मनाया जाने वाला पर्व है। केरल वासी आदर्श राजा महाबली के स्मरण में मनाते हैं। तथा घरों को सजाते एवं संवारते हैं।
कहा जाता है कि इस दिन इनके देवता राजाबली इन्हें आशीर्वाद देने पाताल लोक से आते हैं। यह प्राचीन राजा महाबली के याद मे मनाया जाता है। यह पर्व दस दिनों तक चलाता है, इन दस दिनों मे घरों में फूलों की रंगोली बनाई जाती है।

कॉवर- 



यह एक पर्वनुमा यात्रा है जिसमें श्रावण भर पूरे बिहार में यात्रा होती है। लोग गेरुआ वस्त्र धारण कर कन्धे पर कॉवर लेकर नंगे पाँव सुल्तानगंज से जाते हैं एवं वहाँ से शुद्ध गंगाजल को लेकर ९५ किमी. की दूरी की पदयात्रा कर वैद्यनाथ मन्दिर में जल का अर्ध्य भगवान शिव के ऊपर चढ़ाते हैं। 

उरांव-

 यह आदिवासियों का पर्व है। यह पर्व मुख्यतः उरांव आदिवासी के लोग भादों शुक्‍ल पक्ष की एकादशी को बड़े हर्षो‍उल्लास के साथ मनाते हैं। 

सरहूल- 


यह आदिवासियों के द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है। कृषि कार्य प्रारम्भ होने पर मनाया जाता है। सरना में पूजा की जाती है।

ईद- 


यह मुसलमानों का विशेष त्यौहार है जो रमजान के महीने में उपवास की समाप्ति के तदोपरान्त मनाया जाता है। इसके माध्यम से श्रद्धालु मुसलमान उपवास के सफल समापन होने पर धन्यवाद या बधाईयाँ देते हैं। और फिना (दान) भी करते हैं। इसे ईद उल फितर भी कहा जाता है।

बकरीद-


 इसे ईद उल जुहा कहा जाता है। इस्लामी पंचांग के अनुसार आखरी महीना में मनाया जाता है। इसी दिन पैगम्बर इब्राहिम धर्म पुरुष का बलिदान हुआ था। मुसलमान पशुओं का वध करते हैं तथा इसी दिन तीर्थोत्व हज्ज भी सम्पन्‍न होता है।

मुहर्रम- 


मुसलमानी पंचांग के अनुसार यह प्रथम माह में होता है। महीने के १०वीं तारीख को हजरत इमाम हुसैन के शहीद को याद किया जाता है। यह शोक के रुप में शिया मुसलमानों द्वारा मनाया जाता है।

पोंगल-



 यह पर्व बिहार में रहने वाले तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेशो के लोगो द्वारा मनाया जाता है। यह त्यौहार तीन दिनों तक मनाया जाता है। प्रथम दिन परिवार में उत्सव मनाया जाता है। द्वितीय दिन सूर्य की पूजा की जाती है। तृतीय दिन पशुओं की पूजा की जाती है ।
पोंगल का त्यहार कृषि एवं फसल से सम्बन्धित देवताओं को समर्पित है (Pongal is dedicated to the god of harvest). इस त्यहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि इस दिन सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है वह पोगल कहलता है. तमिल भाषा में पोंगल का एक अन्य अर्थ निकलता है अच्छी तरह उबालना. दोनों ही रूप में देखा जाए तो बात निकल कर यह आती है कि अच्छी तरह उबाल कर सूर्य देवता को प्रसाद भोग लगाना.पोंगल का महत्व इसलिए भी है क्योकि यह तमिल महीने की पहली तारीख को आरम्भ होता है (Tamil panchang first day) |

जगन्‍नाथ रथ यात्रा-



 यह एक यात्रा उत्सव है जो आषाढ़ शुक्‍ल पक्ष की द्वितीया को बिहार में मनाया जाता है। यह मुख्यतः उड़ीसा में मनाया जाता है। जगन्‍नाथ बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियाँ अलग-अलग रथों पर निकाली जाती हैं।
 एक मान्यता के अनुसार आज के दिन भगवान जगन्नाथ उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा सात दिनों के लिए अपनी मौसी के घर घूमने जाते है । भगवान जगन्नाथ की उनकी मौसी के घर यात्रा की याद में ही यह रथ यात्रा निकाली जाती है । जगन्नाथ पुरी की बात करें तो तीन अलग अलग रथ बनाए जाते है । और हजारों की संख्या में लोग उन रथों को रस्सी से खींचते हैं । लेकिन दिल्ली में भगवान जगन्नाथ , बालभद्र और सुभद्रा को एक ही रथ में रखा जाता है और इसे खींचने के लिए सैकड़ों लोग इकठ्ठा होते हैं ।

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II श्री सरस्वत्यै नमः II

II श्री सरस्वत्यै नमः II
ॐ शुक्लांब्रह्मविचारसार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं I वीणापुस्तक धारिणींमभयदां जाड्यान्ध्कारापहाम् II हस्तेस्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मसनेसंस्थितां I वन्देतांपरमेश्वरींभगवतीं बुद्धिप्रदाम शारदाम् II

माछक महत्व


हरि हरि ! जनम कि‌ऎक लेल ?
रोहु माछक मूड़ा जखन पैठ नहि भेल ?
मोदिनीक पल‌इ तरल जीभ पर ने देल !
घृत महँक भुजल कब‌इ कठमे ने गेल !
लाल-लाल झिंगा जखन दाँ तर ने देल !
माडुरक झोर सँ चरणामृत ने लेल !
माछक अंडा लय जौं नौवौद्य नहि देल !
माछे जखन छाड़ि देब, खा‌एब की बकलेल!
सागेपात चिबैबक छल त जन्म कि‌ऎ लेल !
हरि हरि.



पग पग पोखैर पान मखान , सरस बोल मुस्की मुस्कान, बिद्या बैभव शांति प्रतिक, ललित नगर दरभंगा थिक l

कर भला तो हो भला अंत भले का भला

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