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विद्यापति गीत

 

                                                                                विद्यापति

विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रुप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महती प्रयास किया है।


मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं । पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनायें हैं।


महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्र और लोक दोनों ही संसाराह में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्य शास्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुश्य एवं दूरदर्शिता सो उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है:
(क) देवसिंह (ख) कीर्तिसिंह (ग) शिवसिंह (घ) पद्मसिंह (च) नरसिंह (छ) धीरसिंह (ज) भैरवसिंह और (झ) चन्द्रसिंह।
इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है:


(क) लखिमादेवी (देई) (ख) विश्वासदेवी और (ग) धीरमतिदेवी।
मैथिलीक आकाशमे विद्यापति एकटा एहन नक्षत्रराज भेलाह जनिका लऽ कऽ हमरालोकनि आन-आन भाषा-भाषीक समक्ष गौरवक अनुभव कऽ रहल छी । बड्गालीलोकनि हिनक कृतिसँ मुग्ध भऽ कऽ हिनका बङ्गाली बनएबाक अथक प्रयास सेहो कएलनि, मुदा ओ लोकनि सफल नहि भेलाह । महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, जस्टिस शारदाचरण मित्र, बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त आदि बङ्गाली विद्वानलोकनि मानि लेलनि जे विद्यापति बङ्गाली नहि, मिथिलावासी छलाह आ मैथिलीमे गीत लिखलनि । एहि दिशामे काज कएनिहार ग्रियर्सन साहेब निश्‍चित रुपसँ धन्यवादक पात्र छथि जे सर्वप्रथम विद्यापतिकेँ बंगाली सँ बिहारी प्रमाणित कएलनि ।


विद्यापतिक जन्म सन १३६० ई. मे मधुबनी जिलाक बिस्फी गाममे भेल छलनि । ई बैशैबारगढ़ मूलक काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण छलाह । मुदा जहियासँ बिस्फी गाम उपार्जन कएलनि तहियासँ हिनक मूल बिशैबार बिस्फी भऽ गेलनि । हिनक पिताक नाम गणपति ठाकुर तथा माताक नाम हासिनी देवी छलनि । कहल जाइत अछि जे कपिलेश्‍वर महादेवक आराधना कऽ गणपति ठाकुर एहन पुत्ररत्‍न प्राप्त कएने छलाह । मिथिलाक प्रसिद्ध विद्वान हरि मिश्र सँ ई शिक्षा ग्रहण कएने छलाह । पक्षधर मिश्र हिनक सहपाठी छलथिन ।
ई एकटा मनोवैज्ञानिक तथ्य अछि जे जखन केओ समाजमे उच्च पदपर आसीन भऽ जाइत छथि तँ हुनक विद्वेषी हुनक व्यक्तित्वकेँ छोट करबाक हेतु नाना प्रकारक बात सभ करऽ लगैत अछि । एहन विद्वेषीमे एकटा केशव मिश्र सेहो छलाह । ओ अपन द्वैतपरिविष्ट नामक धर्मशास्त्र-ग्रन्थमे ‘ये केञ्चन्र भागवतः ग्राम याचकः नर्तकाः’ कहि कऽ विद्यापतिक उपहास कएने छथि । अर्थात ओ राजदरबारमे भागवतक वाचन करैत छलाह तेँ भगवतिया भेलाह, ओ राजा शिवसिंहसँ बिस्फी ग्राम उपहारस्वरुप पओने छलाह तेँ ग्राम-याचक भेलाह आ देशी भाषामे गीत बनौलनि तें नटुआ भेलाह । मुदा अपसोचक बात ई अछि जे केशव मिश्र आइ जीवित नहि छथि । जँ ओ आइ जीवित रहितथि तँ विद्यापतिक लोकप्रियता देखिकऽ हुनक माथ लाजसँ झुकि जइतनि ।
विद्यापतिक पिता गणपति ठाकुर राजा गणेश्‍वरक दरबारमे मन्त्री छलाह । तें ओ नेत्रहिसँ अपन पिताक सङ्ग गणेश्‍वरक दरबारमे जाइत-अबैत छलाह । गणेश्‍वरक बाद कीर्तिसिंह राजा भेलाह । अतः ओ हिनका दरबारमे जाए-आबऽ लगलाह । विद्यापति एहि कीर्तिसिंहक नामपर अपन पहिल पुस्तक कीर्तिलता लिखलनि । एकर भाषा अपभ्रंश (संस्कृत-प्राकृत मिश्रित मैथिली) अछि, जकरा ओ अवहट्ट कहने छथि । एहि भाषा पर हुनका गर्व सेहो छलनि । एतदर्थ देखल जा सकैत अछि ओहि पुस्तकक पहिल पल्लबक ई पांति-


देसिल बयना सब जन मिट्ठा ।


तें तैसन जम्पओ अवहट्ठा ॥


अर्थात देशी भाषा (अपन भाषा) सभकेँ मीठ लगैत छैक । तें हम एहि भाषामे एकर रचना कएल । हुनक मोनमे इहो शङ्का छलनि जे ज्योतिरीश्‍वर जकाँ हमरो एहि भाषाकेँ देखिकऽ संस्कृतक पंडित हँसताह । कारण, ओहि समयमे न्याय आ मीमांसाक अध्ययन तथा टिप्पणी लिखब पण्डितलोकनिक प्रिय वस्तु छलनि । मुदा विधापति एहि मार्ग कें बदलि कऽ ज्योतिरीश्‍वर जकाँ अपन नव मार्ग बनेलनि । ई नव मार्ग विषय-वस्तु तथा भाषा दुनू स्तर पर छल ।
तें हुनक भाषाक संबंधमे कहल जाईछ :-


बाल चन्द विज्जावइ भाषा ।


दुहु नहि लग्गै दुज्जन हासा ॥


श्री परमेश्‍वर हर सिर सोहई ।


ई णिच्चई णाअर मन मोहइ ॥


अर्थात्‌ बालचन्द्र तथा मैथिली भाषा देखि कऽ दुर्जन लोक कें हँसी नहि लगतनि । कारण बाल चन्द्रमा शिवक मस्तक पर शोभित छनि आ ई भाषा बुझनिहार लोकक मन मोहबला अछि । एहिठाम हमरा सभ के इ नहि बिसरबाक चाही जे विद्यापति एहि भाषा कें वाल चन्द्र सदृश थाढ़ कएने छथि । विद्यापति अपन एहि भाषा मे कीर्तिपताका आ कीर्तिलता नामक ग्रंथ लिखलनि । एहि दुनू ग्रंथक अलावा ओ संस्कृत मे भू-परिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, शैव सर्वस्वसार, गंगावाक्यावली, दानवाक्ययावली, दुर्गा भक्‍ति तरंगिनी, विभाग सार, न्याय पत्तल, ज्योति प्रदर्पण, वर्षकृत्य, गोरक्ष विजय (नाटक ), मणिमंजरी (नाटक) आदि ग्रंथक रचना कएलनि । जतऽ भू परिक्रमा मे विद्यापति मुख्य तीर्थ सभक वर्णन कएने छथि ओतऽ लिखनावली मे पत्र लेखन शैलीक विवरण अछि । राजा शिवसिंहक आदेश पर लिखल गेल पुरूष परीक्षा मे ललित कथाक रूप मे धार्मिक तथा राजनीतिक विषयक वर्णन अछि । ठीक एहिना दुर्गा भक्ति तरंगिनी मे दुर्गाक गहना तथा दुर्गा पूजाक विधि संबंधी बात नरसिंह देवक आदेश पर लिखल गेल । शैव सर्वस्वसार मे भव सिंह सँ लऽ कऽ विश्‍वास देवी धरिक राजाक कीर्ति कथाक संगहि शिवपूजा विधिक उल्लेख अछि ।
एहि तरहें देखल जाय तँ ओ मात्र गीतकारे नहि, अपितु यात्रा वृतांत लेखक, कथाकार, पत्र लेखक, निबन्धकार आदि छलाह । मुदा सभ सँ बेसी हुनका ख्याति भेटलनि गीतकारक रूप मे । एहि रूप मे ओ अमर भऽ गेलाह । हुनक गीतक संबंध मे ग्रियर्सन कहने छथि - ’भलेहि हिन्दू धर्मक सुर्य अस्त भऽ जाय, ओहन समय आबि जाए जखन कृष्णक स्तुतिक लेल लोक मे विश्‍वास आ श्रद्धा नहि एहि जाईक जे हमरा लोकनिक अस्तित्वक औषधि अछि, तथापि विद्यापति गीतक प्रति जे अनुराग अछि, ओ कहियो कम नहि होयत जाहि मे ओ राधा कृष्णक चर्च कएने छथि ।


विद्यापतिक जतेक गीतसभ अछि ओहिमे अधिकांश गीत सभ श्रृंगार-रस प्रधान अछि, जाहिमे संस्कृत शास्त्रक अनुसार वय: सन्धि, नखशिख, विरह, अभिसार, सद्य: स्नाता, कौतुक, मान, मिलन आदिक वर्णन बहुत मनमोहक ढ़ग सँ कएल गेल अछि ।
उदाहरणक रूप मे नख शिख वर्णनक एकटा गीत देखल जा सकैछ -


माधव की कहब सुन्दरि रूपे ।


कतन जतने विहि आनि समारल, देखल नयन सरूपे ॥


पल्लवराज चरण -युग सोभित, गति गजराजक भाने ।


कनक कदलिपर सिंह समारल, तापर मेरू समाने ।


मेरू उपर दुई कमल फ़ुलाएल, नाल बिना रूचि पाई ।


मनिमय हार धार बहु सुरसरि, तेँ नहि कमल सुखाई ॥


अधर बिम्बसन, दसन दाडिम बिजु , रवि ससि उगथि पासे ।


राहु दूर बसु निअरे न आवथि तेँ नहि करथि गरासे ॥


सारंग उपर उगल दस सारंग, केलि करथि मधुपाने ॥


भन‍ई विद्यापति सिन बर जौबति, एहि जगत नहि आने ।


राजा सिवसिंह रुपनाराएन, लखिमा देह प्रतिभाने ॥ 
 विद्यापतिक उपर्युक्त गीत समस्त भारतीय भाषा-संसार मे अद्वितीय मानल गेल अछि । एहि गीतपर मोहित भऽ कऽ महाकवि सूर तथा कवि चन्द सेहो एहि प्रकारक गीत लिखबाक चेष्टा कएलनि, मुदा जे उचाँइ विद्यापति अपना गीतमे दऽ सकलाह ओ उँचाइ हिनाकालोनिसँ सम्भव नहि भऽ सकल ।


विद्यापति मात्र एकटा साहित्यिके व्यक्‍ति नहि, अपितु ओ एकटा सफ़ल कूटनीतिज्ञ सेहो छलाह । एकर पुष्टि एहि तथ्यसँ होइत अछि जे जखन यवन सेना हुनक प्रिय राजा शिवसिंह केँ पकड़िकऽ दिल्ली लऽ गेलनि तँ ओ अपन कुटनीतिक प्रयाससँ हुनका छोड़ाकऽ दिल्ली सँ पुन: मिथिला अनलनि । एहि क्रम मे दिल्लीक बादशाह केँ जखन अपन परिचय देलथिन तँ ओ कहलकनि जे तोँ अपनाकेँ कवि कहैत छह तँ अपन कौशल देखाबह । एहिपर विद्यापति कहलथिन जे हम अदृश्य चीजक वर्णन कऽ सकैत छी । तखन हुनक आँखिपर पट्टी बान्हि देल गेलनि ।
कोनो- कोनो ठाम उल्लेख अछि जे सन्नुकमे बन्न कऽ कऽ हुनका इनारमे धऽ देल गेलनि आ कतेको ठाम इहो उल्लेख अछि जे हुनका कोठली मे बन्न कऽ देल गेलनि । मुदा ई दुनू बात विश्‍वसनीय नहि बुझना जाइछ । कारण जाहिठाम दरबार लगैत छल होएत ओहिठाम इनार रहब असंगत बुझि पड़ैत अछि । दोसर जँ विद्यापति चिचिया- चिचियाकऽ गबितथि तखनहि बादशाह तथा अन्य दरबारीलोकनिकेँ सुनऽमे अबितनि एहना स्थिति मे पट्टीए समीचीन बुझना जाइत अछि ।
खैर तखन एकरा बाद जे नृत्यांगना नृत्य कएलनि ओकर बोल निम्नांकित रूपेँ देलनि -


सजनि निहुरि फ़ुकू आगि ।


तोहर कमर भमर मोर देखल, मदन उठल जागि ॥


जौँ एहि सङ्कटसौ जिव बाँचत होएत लोचन मेला ॥


भन विद्यापति चाहथि जे विधि करथि से- से लीला ।


राजा शिवसिंह बन्धन मोचन तखन सुकवि जीला ॥


राजा शिवसिंह स्वच्छंद प्रकृतिक लोक रहबाक कारणे पुन: दिल्लीक बादशाहक उल्लङघन करऽ लगलाह । अत: ओ कुपित भऽ कऽ हिनकापर चढ़ाइ कऽ देलकनि । एहिबेरक लछण- करम ठीक नहि छल , तेँ शिवसिंह अपन सभसँ विश्‍वासी व्यक्ति विद्यापतिक सङ्क महारानी लोकनिकेँ राजा पुरादित्यक ओहिठाम रहलाह । ओहि राजाक विश्‍वासपात्र बनल रहलाह । ओ दोसर, कोनो आन राजाक समक्ष कोना की बर्ताव कएल जाए, तकर ज्ञान हिनका नीक जकाँ छलनि । ई दुनू बात हिनक व्यक्तित्व उल्लेखनीय पक्ष अछि


विद्यापति कतेको राजा तथा रानीक दरबार मे रहलाह । यथा- गणेश्‍वर, भवेश्‍वर, कीर्तिसिंह, देवसिंह, शिवसिंह, पद्मसिंह, विश्‍वासदेवी, रत्नसिंह तथा धीरसिंह । एहिमे गणेश्‍वरक वध कऽ भवेश्‍वर राजा भेल छलाह । कीर्तिसिंह दिल्लीक बादशाहक सहयोगसँ भवेश्‍वरक पुत्रकेँ मारि हत्याक बदला लऽ राज्य फ़िर्ता लेलनि । शिवसिंह युद्धभूमिसँ लापता भऽ गेलाह । कतेको राजासँ हुनकालोकनिक स्वाभाविक मृत्युक कारणे विद्यापतिक सङग छुटि गेलनि । एहि तरहेँ ओ गणेशवरसँ धीरसिंह धरिक घटनाकेँ देखैत- देखैत भीतरसँ टुटि गेल छलाह । तेँ अधिकांश गीतमे धैर्य रखबाक प्रेरणा देनिहार महान आशावादी कवि निराशावादी मे बदलि गेलाह । एहना स्थिति मे ओ कहि उठलाह - माधव हम परिणाम निरासा ।
यवनक आक्रमण तथा जल्दी जल्दी नेतृत्व परिवर्तनक कारणे मिथिलाक आर्थिक आ सामाजिक स्थिति सुदृढ छल से नहि कहल जा सकैत अछि । कारण, ई परिपाटी देखल गेल अछि जे जखन कोनो क्षेत्रपर यवन सेना आक्रमण करैत छल तँ ओसभ ओहि क्षेत्रके नाश कऽ दैत छल । रूपमती स्त्रीलोकनिक आत्मा ओकरासभक अत्याचार सँ कलपि उठैत छलनि । राज्यक लोकसभ त्राहिमाम त्राहिमाम करऽ लगैत छल । एहना स्थितिमे गार्हस्थ्य जीवन छिन्न भिन्न भऽ जाइत छलैक । एहि विकट परिस्थिति मे गार्हस्थ्य जीवनसँ पलायनोन्मुख समाजकेँ पुन: गार्हस्थ्य जीवन मे घुमएबाक हेतु विद्यापति एहि शिवगीतक रचना करैत देखल जाइत छथि -


बेरि-बेरि अरे सिव, मोञ तोहि बोल्यो किरिस करिअ मन लाए ।


बिनु सरमे रर्हिअ, भिखिए पए मड्गिअ गुन गौरब दुर जाए ॥


खटमऽ काटि हर हर बन्धबिए तिरसिल तोड़िअ करू फ़ारे ।


बसह धुरन्धर लए हर जोतिअ पाटिअ सुरसरि धारे ॥


एतबए नहि, विद्यापतिक समय मे मिथिला मे बहु विवाहक प्रथा छल । स्वयं राजा शिवसिंह छओटा विवाह कएने छलाह । स्त्री केँ भोगक वस्तु मानल जाइत छल । तेँ लोक बुढ़ो मे विवाह करबाक हेतु आतुर रहैत छल ।
एकर चित्र हमरालोकनिकेँ विद्यापतिक दोसर गीत मे भेटैत अछि -
आगे माइ , हम नहि आजु रहब एहि आड्गन ।
जञो बुढ़ होएत जमाय ॥
मिथिलाक किछु वर्ग मे ई देखल जाइत अछि जे जखन पति पत्नी मे कोनो प्रकारक झगड़ा होइत छैक तँ पत्‍नी अपन बेटा - बेटीकँ कखियाकऽ नैहर चलि दैत अछि । ई परिपाटी विद्यापतिकालीन मिथिला मे सेहो छल । एकर चित्रण हमरा लोकनिकँ विद्यापतिक निम्नांकित गीत मे भेटैत अछि _
चलली भवानी तेजिअ महेश ।


कर धए कार्तिक गोद गणेश ॥


उपर्युक्त शिवगीतकँ देखैत ई बात सरासर गलत होएत जे विद्यापति खाली रजनीए- सजनीमे लागल रहलाह । किछु समीक्षकलोकनि एहू बातकँ बिसरि जाइत छथि जे “घन घन घनन गुगुर कतऽ बाजए , हन हन कर तुअ काता" वला भैरवी वन्दना सेहो ओ लिखलनि जे वीररसकेँ साकार करैत अछि । एहि तरहें देखैत छी जे विद्यापति अपन कलमरूपी तरूआरि नीकजकाँ चारूदिस भजलनि । ईएह कारण अछि जे विद्यापतिकेँ जतेक उपाधि देल गेलनि ओतेक उपाधि संसारक कोनो कवि नहि पाबि सकलाह । आइ ई हमरालोकनिक समक्ष कविकोकिल, कविकण्ठहार, कविरञ्जन, कविशेखर, सुकवि, महाकवि, दशावधान, पञ्चानन , अभिनव जयदेव आदि उपाधिसँ जानल जाइत छथि ।
मिथिलाक ई नक्षत्र सन १४५० ई मे कैलाशवासी भऽ गेलाह । यद्यपि हिनक जन्म आ मृत्युक साल विद्वानलोकनिक बीच मतान्तरक विषय आछि, तथापि मास तिथि मे कोनो विवाद नहि अछि । कारण, एकर उल्लेख हमरालोकनिकेँ भेटि गेल अछि-
विद्यापतिक आयु अवसान ।


कार्तिक धवल त्रयोदशि जान ॥




प्रमुख रचनायें :-





(१.)
जय जय भैरवि असुरभयाउनि, पसुपति–भाबिनि माया ।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाञुनि, अनुगति गति तुअ पाया ।।

बासर–रइनि सवासने सोभित, चरन चन्‍द-मनि-चूड़ा ।
कतओक दैत मारि मुहे मेरल, कतन उगिलि करु कूड़ा ।।

सामर बदन, नयन अनुरञ्जित, जलद जोग फुल कोका ।
कट-कट विकट ओठ–पुट पाँड़रि, लिधुर–फेन उठ फोका ।६।।

घन घन घनन घुघुरु कटि बाजए, हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनु माता ।।८।।




(२.)
सैसव जौवन दुहु मिलि गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास।
मुकुर हाथ लए करए सिङ्गार। सखि पूछए कैसे सुरत-बिहार।
निरजन उरज हेरइ कत बेरि। बिहुसए अपन पयोधर हेरि।
पहिल बदरि सम पुनु नवरङ्ग। दिने-दिने मदन अगोरल अङ्ग।।
माधव देखल अपरुब बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तुहु अगेआनि। दुहु एक जोग इह के कह सयानि।।


(३.)
के पतिआ लय जायत रे, मोरा पिअतम पास।
हिय नहि सहय असह दुखरे, भेल माओन मास।।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे, मोहि रहलो न जाय।
सखि अनकर दुख दारुन रे, जग के पतिआय।।
मोर मन हरि लय गेल रे, अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बसु रे, कत अपजस लेल।।
विद्यापति कवि गाओल रे, धनि धरु मन मास।
आओत तोर मन भावन रे, एहि कातिक मास।।






(४.)


चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।
एकसरि ठाठि कदम-तर रे, पछ हरेधि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी।।
जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह।।
कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी।।







(५.)


सासु जरातुरि भेली। ननन्दि अछलि सेहो सासुर गेली।
तैसन न देखिअ कोई। रयनि जगाए सम्भासन होई।
एहि पुर एहे बेबहारे। काहुक केओ नहि करए पुछारे।
मोरि पिअतमकाँ कहबा। हमे एकसरि धनि कत दिन रहबा।
पथिक, कहब मोर कन्ता। हम सनि रमनि न तेज रसमन्ता।
भनइ विद्यापति गाबे। भमि-भमि विरहिनि पथुक बुझाबे।




(६.)
उचित बसए मोर मनमथ चोर। चेरिआ बुढ़िआ करए अगोर।
बारह बरख अवधि कए गेल। चारि बरख तन्हि गेलाँ भेल।
बास चाहैत होअ पथिकहु लाज। सासु ननन्द नहि अछए समाज।
सात पाँच घर तन्हि सजि देल। पिआ देसाँतर आँतर भेल।
पड़ेओस वास जोएनसत भेल। थाने थाने अवयव सबे गेल।
नुकाबिअ तिमिरक सान्धि। पड़उसिनि देअए फड़की बान्धि।
मोरा मन हे खनहि खन भाग। गमन गोपब कत मनमथ जाग।




(७.)


हम एकसरि, पिअतम नहि गाम। तेँ मोहि तरतम देइते ठाम।
अनतहु कतहु देअइतहुँ बास। दोसर न देखिअ पड़ओसिओ पास।
छमह हे पथिक, करिअ हमे काह। बास नगर भमि अनतह चाह।
आँतर पाँतर, साँझक बेरि। परदेस बसिअ अनाइति हेरि।
मोरा मन हे खनहि खन भाँग। जौवन गोपब कत मनसिज जाग।
घोर पयोधर जामिनि भेद। जे करतब ता करह परिछेद।
भनइ विद्यापति नागरि-रीति। व्याज-वचने उपजाब पिरीति।




(८.)


ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह।
नव जलधर तर चमकय रे जनि बिजुरी-रेह।।
आजु देखलि धनि जाइत रे मोहि उपजल रंग।
कनकलता जनि संचर रे महि निर अवलम्ब।।
ता पुन अपरुब देखल रे कुच-जुग अरविन्द।
विकसित नहि किछुकारन रे सोझा मुख चन्द।।
विद्यापति कवि गाओल रे रस बुझ रसमन्त।
देवसिंह नृप नागर रे, हासिनि देइ कन्त।।


(९.)


जाइत पेखलि नहायलि गोरी।
कल सएँ रुप धनि आनल चोरी।।
केस निगारहत बह जल धारा।
चमर गरय जनि मोतिम-हारा।।
तीतल अलक-बदन अति शोभा।
अलि कुल कमल बेढल मधुलोभा।।
नीर निरंजन लोचन राता।
सिंदुर मंडित जनि पंकज-पाता।।
सजल चीर रह पयोधर-सीमा।
कनक-बेल जनि पडि गेल हीमा।।
ओ नुकि करतहिं जाहि किय देहा।
अबहि छोडब मोहि तेजब नेहा।।
एसन रस नहि होसब आरा।
इहे लागि रोइ गरम जलधारा।।
विद्यापति कह सुनहु मुरारि।
वसन लागल भाव रुप निहारि।।


(१०.)


जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे, आगरि सुबुधि सेगानि।
कनकलता सनि सुनदरि सजनि में, विहि निरमाओलि आनि।।
हस्ति-गमन जकां चलइत सजनिगे, देखइत राजकुमारि।
जनिकर एहनि सोहागिनि सजनि में, पाओल पदरथ वारि।।
नील वसन तन घरेल सजनिगे, सिरलेल चिकुर सम्हारि।
तापर भमरा पिबय रस सजनिगे, बइसल आंखि पसारि।।
केहरि सम कटि गुन अछि सजनि में, लोचन अम्बुज धारि।।
विद्यापति कवि गाओलसजनि में, गुन पाओल
अवधारि।


(११.)


जखन लेल हरि कंचुअ अछोडि
कत परि जुगुति कयलि अंग मोहि।।
तखनुक कहिनी कहल न जाय।
लाजे सुमुखि धनि रसलि लजाय।।
कर न मिझाय दूर दीप।
लाजे न मरय नारि कठजीव।।
अंकम कठिन सहय के पार।
कोमल हृदय उखडि गेल हार।।
भनह विद्यापति तखनुक झन।
कओन कहय सखि होयत बिहान।।


(१२.)

कि कहब हे सखि आजुक रंग।
सपनहिं सूतल कुपुरुप संग।।
बड सुपुक्ख बलि आयल घाइ।
सूति रहल मोर आंचर झंपाइ।।
कांचुलि खोलि आंलिगल देल।
मोहि जगाय आपु जिंद गेल।
हे बिहि हे बिहि बड दुम देल।।
से दुख हे सखि अबहु न गेल।।
भनई विद्यापति एस रश इंद।
भेक कि जान कुसुम मकरंद।।


(१३.)


मानिनि आब उचित नहि मान।
एखनुक रंग एहन सन लागय जागल पए पंचबान।।
जूडि रयनि चकमक करन चांदनि एहन समय नहि आन।
एहि अवसर पिय मिलन जेहन सुख जकाहि होय से जान।।
रभसि रभसि अलि बिलसि बिलसि कलि करय मधु पान।
अपन-अपन पहु सबहु जेमाओल भूखल तुऊ जजमान।।
त्रिबलि तरंग सितासित संगम उरज सम्भु निरमान।
आरति पति मंगइछ परति ग्रह करु धनि सरबस दान।।
दीप-बाति सम भिर न रहम मन दिढ करु अपन गेयान।
संचित मदन बेदन अति दारुन विद्यापति कवि भान।।






(१४.)


कुच-जुग अंकुर उतपत् भेल।
चरन-चपल गति लोचन लेल।।
अब सब अन रह आँचर हाथ
लाजे सखीजन न पूछय बात।।
कि कहब माधव वयसक संधि।
हेरइत मानसिज मन रहु बंधि।।
तइअओ काम हृदय अनुपाम।
रोपल कलस ऊँच कम ठाम।।
सुनइत रस-कथा थापय चीत।
जइसे कुरंगिनि सुय संगीत।।
सैसव जीवन उपजल बाद।
केओ नहि मानय जय अवसाद।।
विद्यापति कौतुक बलिहारि।
सैसव से तनु छोडनहि पारि।।


(१५.)


सैसव जीवन दुहु सिलि गेल।
श्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि नहुनहु हास।
धरनिये चान कयल परकास।।
मुकुर हाथ लय करम सिंगार।
सखइ पूछय कइसे सुरत-विहार।।
निरंजन अपन पयेचर हेरि।।
पहिले बदरि सम पुन नवरंग।
दिन-दिन अनंग अगोरल अंग।।
माधव पेखल अपरुब बाला।
सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तुहु अगेआनि।
दुहु एक जोग इह के कह सयानि।।


(१६.)

कान्ह हेरल छल मन बड़ साध।
कान्ह हेरइत भेलएत परमाद।।
तबधरि अबुधि सुगुधि हो नारि।
कि कहि कि सुनि किछु बुझय न पारि।।
साओन घन सभ झर दु नयान।
अविरल धक-धक करय परान।।
की लागि सजनी दरसन भेल।
रभसें अपन जिब पर हाथ देल।।
न जानिअ किए करु मोहन चारे।
हेरइत जिब हरि लय गेल मारे।।
एत सब आदर गेल दरसाय।
जत बिसरिअ तत बिसरि न जाय।।
विद्यापति कह सुनु बर नारि।
धैरज धरु चित मिलब मुरारि।।


(१७.)



कंटक माझ कुसुम परगास।
भमर बिकल नहि पाबय पास।।
भमरा भेल कुरय सब ठाम।
तोहि बिनु मालति नहिं बिसराम।।
रसमति मालति पुनु पुनु देखि।
पिबय चाह मधु जीव उपेंखि।।
ओ मधुजीवि तोहें मधुरासि।
सांधि धरसि मधु मने न लजासि।।
अपने मने धनि बुझ अबगाही।
तोहर दूषन बध लागत काहि।।
भनहि विद्यापति तओं पए जीव।
अधर सुधारस जओं परपीब।।


(१८.)


कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।

एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी।।
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी।।
संगक सखि अगुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे एक राति अन्हारी।।
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी।।
(१९.)


आहे सधि आहे सखि लय जनि जाह।
हम अति बालिक आकुल नाह।।
गोट-गोट सखि सब गेलि बहराय।
ब केबाड पहु देलन्हि लगाय।।
ताहि अवसर कर धयलनि कंत।
चीर सम्हारइत जिब भेल अंत।।
नहि नहि करिअ नयन ढर नीर।
कांच कमल भमरा झिकझोर।।
जइसे डगमग नलिनिक नीर।
तइसे डगमग धनिक सरीर।।
भन विद्यापति सुनु कविराज।
आगि जारि पुनि आमिक लाज।।


(२०.)


सामरि हे झामरि तोर दहे।
कह कह कासँए लायलि नहे।।
निन्दे भरल अछि लोचन तोर।
कोमल बदन कमल रुचि चारे।।
निरस धुसर करु अधर पँवार।
कोन कुबुधि लुतु मदन-भंडार।।
कोन कुमति कुच नख-खतदेल।
हा-हा सम्भु भागन भेय गेल।।
दमन-लता सम तनु सुकुमार।
फूटल बलय टुटल गुमहार।।
केस कुसुम तोर सिरक सिन्दूर।
अलक तिलक हे सेहो गेल दूर।।
भनइ विद्यापति रति अवसान।
राजा सिंवसिंह ईरस जान।।


(२१.)


कि कहब हे सखि रातुक बात।
मानक पइल कुबानिक हाथ।।
काच कंचन नहि जानय मूल।
गुंजा रतन करय समतूल।।
जे किछु कभु नहि कला रस जान।
नीर खीर दुहु करय समान।।
तन्हि सएँ कइसन पिरिति रसाल।
बानर-कंठ कि सोतिय माल।।
भनइ विद्यापति एह रस जान।
बानर-मुह कि सोभय पान।।


(२२.)


आजु दोखिअ सखि बड़ अनमन सन, बदन मलिन भेल तारो।
मन्द वचन तोहि कओन कहल अछि, से न कहिअ किअ मारो।
आजुक रयनि सखि कठि बितल अछि, कान्ह रभस कर मंदा।
गुण अवगुण पहु एकओ न बुझलनि, राहु गरासल चंदा।।
अधर सुखायल केस असझासल, धामे तिलक बहि गेला।
बारि विलासिनि केलि न जानथि, भाल अकण उड़ि गेला।।
भनइ विद्यापति सुनु बर यौवति, ताहि कहब किअ बाधे।
जे किछु पहुँ देल आंचर बान्हि लेल, सखि सभ कर उपहासे।।


(२३.)


कामिनि करम सनाने
हेरितहि हृदय हनम पंचनाने।
चिकुर गरम जलधारा
मुख ससि डरे जनि रोअम अन्हारा।
कुच-जुग चारु चकेबा
निअ कुल मिलत आनि कोने देवा।
ते संकाएँ भुज-पासे
बांधि धयल उडि जायत अकासे।
तितल वसन तनु लागू
मुनिहुक विद्यापति गाबे
गुनमति धनि पुनमत जन पाबे।


(२४.)

नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाब।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।
जमुनाक तिर उपवन उदवेगल, फिरि फिरि ततहि निहारि।।
गोरस बेचरा अबइत जाइत, जनि-जनि पुछ बनमारि।
तोंहे मतिमान, सुमति मधुसूदन, वचन सुनह किछु मोरा।
भनइ विद्यापति सुन बरजौवति, बन्दह नन्द किसोरा।।

(२५.)

अम्बर बदन झपाबह गोरि।
राज सुनइ छिअ चांदक चोरि।।
घरे घरे पहरु गेल अछ जोहि।
अब ही दूखन लागत तोहि।।
कतय नुकायब चांदक चोरि।
जतहि नुकायब ततहि उजोरि।।
हास सुधारस न कर उजोर।
बनिक धनिक धन बोलब मोर।।
अधर समीप दसन कर जोति।
सिंदुर सीम बैसाउलि मोति।।
भनइ विद्यापति होहु निसंक।
चांदुह कां किछु लागु कलंक।।

(२६.)

चन्दा जनि उग आजुक राति।
पिया के लिखिअ पठाओब पांति।।
साओन सएँ हम करब पिरीति।
जत अभिमत अभि सारक रिति।।
अथवा राहु बुझाओब हंसी
पिबि जनु उगिलह सीतल ससी।।
कोटि रतन जलधर तोहें लेह।
आजुक रमनि धन तम कय देह।।
भनइ विद्यापति सुभ अभिसार।
भल जल करथइ परक उपकार।।

(२७.)

ए धनि माननि करह संजात।
तुअ कुच हेमघाट हार भुजंगिनी ताक उपर धरु हाथ।।
तोंहे छाडि जदि हम परसब कोय। तुअ हार-नागिनि कारब माथे।।
हमर बचन यदि नहि परतीत। बुझि करह साति जे होय उचीत।।
भुज पास बांधि जघन तले तारि। पयोधर पाथर अदेह मारि।।
उप कारा बांधि राखह दिन-राति। विद्यापति कह उचित ई शादी।।

(२८.)

माधव ई नहि उचित विचार।
जनिक एहनि धनि काम-कला सनि से किअ करु बेभिचार।।
प्रनहु चाहि अधिक कय मानय हदयक हार समाने।
कोन परि जुगुति आनके ताकह की थिक तोहरे गेआने।।
कृपिन पुरुषके केओ नहि निक कह जग भरि कर उपहासे।
निज धन अछइत नहि उपभोगब केवल परहिक आसे।।
भनइ विद्यापति सुनु मथुरापति ई थिक अनुचित काज।
मांगि लायब बित से जदि हो नित अपन करब कोन
काज।।

(२९.)

सजनी कान्ह कें कहब बुझाइ।
रोपि पेम बिज अंकुर मूड़ल बांढब कओने उपाइ।।
तेल-बिन्दु दस पानि पसारिअ ऐरान तोर अनुराग।
सिकता जल जस छनहि सुखायल ऐसन तोर सोहाग।।
कुल-कामिली छलौं कुलटा भय गेलौं तनिकर बचन लोभाइ।
अपेनहि करें हमें मूंड मूडाओल कान्ह सेआ पेम बढ़ाइ।।
चोर रमनि जनि मने-मने रोइअ अम्बर बदन भपाइ।
दीपक लोभ सलभ जनि घायल से फल पाओल घाइ।।
भनइ विद्यापति ई कलयुग रिति चिन्ता करइ न कोई।
अपन करम-दोष आपहि भोगइ जो जनमान्तर होइ।।

(३०.)

अभिनव पल्लव बइसंक देल।
धवल कमल फुल पुरहर भेल।।
करु मकरंद मन्दाकिनि पानि।
अरुन असोग दीप दहु आनि।।
माह हे आजि दिवस पुनमन्त।।
करिअ चुमाओन राय बसन्त।।
संपुन सुधानिधि दधि भल भेल।
भगि-भगि भंगर हंकराय गेल।।
केसु कुसुम सिन्दुर सम भास।
केतकि धुलि बिथरहु पटबास।।
भनइ विद्यापति कवि कंठहार।
रस बझ सिवसिंह सिव अवतार।।

(३१.)

अभिनव कोमल सुन्दर पात।
सगर कानन पहिरल पट रात।
मलय-पवन डोलय बहु भांति
अपन कुसुम रसे अपनहि माति।।
देखि-देखि माधव मन हुलसंत।
बिरिन्दावन भेल बेकत बसंत।।
कोकिल बोलाम साहर भार।
मदन पाओल जग नव अधिकार।।
पाइक मधुकर कर मधु पान।
भमि-भमि जोहय मानिनि-मान।।
दिसि-दिसि से भमि विपिन निहारि।
रास बुझावय मुदित मुरारि।
भनइ विद्यापति ई रस गाव।
राधा-माधव अभिनव भाव।।

(३२.)

सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे।
जौबन बिनु तन, तन बिनु जौबन की जौक पिअ दूरे।।
सखि हे मोर बड दैब विरोधी।
मदन बोदन बड पिया मोर बोलछड, अबहु देहे परबोधी।।
चौदिस भमर भम कुसुम-कुसुम रम, नीरसि भाजरि पीबे।
मंद पवन बह, पिक कुहु-कुहु कह, सुनि विरहिनि कइसे जीवे।।
सिनेह अछत जत, हमे भेल न टुटत, बड बोल जत सबथीर।
अइसन के बोल दुहु निज सिम तेजि कहु, उछल पयोनिधि नीरा।।
भनइ विद्यापति अरे रे कमलमुखि, गुनगाहक पिय तोरा।
राजा सिवसिंह रुपानरायन, रहजे एको नहि भोरा।।

(३३.)

लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे।
सिव-सिव जिव नहिं जाय आस अरुझायल रे।।
मन कर तहाँ उडि जाइ जहाँ हरि पाइअ रे।
पेम-परसमनि-पानि आनि उर लाइअ रे।।
सपनहु संगम पाओल रंग बढाओलरे।
से मोर बिहि विघटाओल निन्दओ हेराओल रे।।
सुकवि विद्यापति गओल धनि धइरज धरु रे।
अचिरे मिलत तोर बालमु पुरत मनोरथ रे।।

(३४.)

आसक लता लगाओल सजनी, नयनक नीर पटाय।
से फल आब परिनत भेल मजनी, आँचर तर न समाय।।
कांच सांच पहु देखि गेल सजनी, तसु मन भेल कुह भान।
दिन-दिन फल परिनत भेल सजनी, अहुनख कर न गेआना।
सबहक पहु परदेस बसु सजनी, आयल सुमिरि सिनेह।
हमर एहन पति निरदय सजनी, नहि मन बाढय नहे।।
भनइ विद्यापति गाओल सजनी, उचित आओत गुन साइ।
उठि बधाव करु मन भरि सजनी, अब आओत घर नाह।।

(३५.)

जौवन रतन अछल दिन चारि।
से देखि आदर कमल मुरारि।।
आवे भेल झाल कुसुम रस छूछ।
बारि बिहून सर केओ नहि पूछ।।
हमर ए विनीत कहब सखि राम।
सुपुरुष नेह अनत नहि होय।।
जावे से धन रह अपना हाथ।
ताबे से आदर कर संग-साथ।।
धनिकक आदर सबतह होय।
निरधन बापुर पूछ नहि कोय।।
भनइ विद्यापति राखब सील।
जओ जग जिबिए नब ओनिधि भील।।

(३६.)
हम जुवती, पति गेलाह बिदेस। लग नहि बसए पड़उसिहु लेस।
सासु ननन्द किछुआओ नहि जान। आँखि रतौन्धी, सुनए न कान।
जागह पथिक, जाह जनु भोर। राति अन्धार, गाम बड़ चोर।
सपनेहु भाओर न देअ कोटबार। पओलेहु लोते न करए बिचार।
नृप इथि काहु करथि नहि साति।
पुरख महत सब हमर सजाति॥
विद्यापति कवि एह रस गाब। उकुतिहि भाव जनाब।


(३७.)

बड़ि जुड़ि एहि तरुक छाहरि, ठामे ठामे बस गाम।
हम एकसरि, पिआ देसाँतर, नहि दुरजन नाम।
पथिक हे, एथा लेह बिसराम।
जत बेसाहब किछु न महघ, सबे मिल एहि ठाम।
सासु नहि घर, पर परिजन ननन्द सहजे भोरि।
एतहु पथिक विमुख जाएब तबे अनाइति मोरि।
भन विद्यापति सुन तञे जुवती जे पुर परक आस।


(३८.)

परतह परदेस, परहिक आस। विमुख न करिअ, अबस दिस बास।
एतहि जानिअ सखि पिअतम-कथा।
भल मन्द नन्दन हे मने अनुमानि। पथिककेँ न बोलिअ टूटलि बानि।
चरन-पखारन, आसन-दान। मधुरहु वचने करिअ समधान।
ए सखि अनुचित एते दुर जाए। आओर करिअ जत अधिक बड़ाइ।

(३९.)

कि कहब हे सखि रातुक बात।मानिक पइल कुबानिक हाथ।
काच क्ञ्चन नहि जानए मूल।गुञ्जा रतन करए समतूल।
जे न कबहु किछु कला-रस जान।नीर-खीर दुहु करए समान।
तन्हि सञो कहाँ पिरीति रसाल।बानर-कण्ठ कि मोतिम माल।
भनइ विद्यापति ई रस जान।बानर-मूह कि सोभए पान।
(४०.)


सैसव जौवन दरसन भेल। दुहु दले बलहि दन्द पड़ि गेल।
कबहु बान्धए कच कहु बिथार। कबहु झापए अङ्ग कबहु उघार।
थीर नयान अथिर किछु भेल। उरज-उदय-थल लालिम देल।
पद चञ्चल, चित चञ्चल भान। जागल मनसिज मुदित नयान।
विद्यापति कह कर अवधान। बाला आङ्गे लागल पञ्चवान।


(४१.)
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे। छाड़इते निकट नयन बह नीरे।
कर जोड़ि बिनमञो विमलतरङ्गे । पुन दरसन होअ पुनिमति गङ्गे ।
एक अपराध छेँओब मोर जानी । परसल माए पाए तुअ पानी।
कि करब जप तप जोग धेआने । जनम सुफल भेल एकहि सनाने।
भनइ विद्यापति समन्दञो तोही । अंत काल जनु बिसरह मोही।



(४२.)
कखन हरब दुख मोर, हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल, दुखहि जिवन गेल, सपनहु नहि सुख मोर।
एहि भव सागर थाह कतहु नहि, भैरव धरु करुआर।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति करब अन्त मोहि पार।

II श्री सरस्वत्यै नमः II

II श्री सरस्वत्यै नमः II
ॐ शुक्लांब्रह्मविचारसार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं I वीणापुस्तक धारिणींमभयदां जाड्यान्ध्कारापहाम् II हस्तेस्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मसनेसंस्थितां I वन्देतांपरमेश्वरींभगवतीं बुद्धिप्रदाम शारदाम् II

माछक महत्व


हरि हरि ! जनम कि‌ऎक लेल ?
रोहु माछक मूड़ा जखन पैठ नहि भेल ?
मोदिनीक पल‌इ तरल जीभ पर ने देल !
घृत महँक भुजल कब‌इ कठमे ने गेल !
लाल-लाल झिंगा जखन दाँ तर ने देल !
माडुरक झोर सँ चरणामृत ने लेल !
माछक अंडा लय जौं नौवौद्य नहि देल !
माछे जखन छाड़ि देब, खा‌एब की बकलेल!
सागेपात चिबैबक छल त जन्म कि‌ऎ लेल !
हरि हरि.



पग पग पोखैर पान मखान , सरस बोल मुस्की मुस्कान, बिद्या बैभव शांति प्रतिक, ललित नगर दरभंगा थिक l

कर भला तो हो भला अंत भले का भला

समस्त मिथिलांचल वासी स निवेदन अछि जे , कुनू भी छेत्र मै विकाश के जे मुख्य पहलू छै तकर बारे मै बिस्तार स लिखैत" और ओकर निदान सेहो , कोनो नव जानकारी या सुझाब कोनो भी तरहक गम्भीर समस्या रचना ,कविता गीत-नाद हमरा मेल करू हमअहांक सुझाब नामक न्यू पेज मै नामक और फोटो के संग प्रकाशित करब ज्ञान बाटला स बढैत छै और ककरो नया दिशा मिल जायत छै , कहाबत छै दस के लाठी एक के बोझ , तै ककरो बोझ नै बनै देवे .जहा तक पार लागे एक दोसर के मदत करी ,चाहे जाही छेत्र मै हो ........

अहांक स्वागत अछि.अहां सभ अपन विचार... सुझाव... कमेंट(मैथिली या हिन्दी मै ) सं हमरा अवगत कराउ.त देर नहि करु मन मे जे अछि ओकरा लिखि कs हमरा darbhangawala@gmail.com,lalan3011@gmail.com पर भेज दिअ-एहि मेल सं अहां अपन विचार... सुझाव... कमेंट सं हमरा अवगत कराउ. सम्पर्क मे बनल रहुं. ..........

एकता विकास के जननी छै

जय मैथिली, जय मिथिला, जय मिथिलांचल (बिहार)


अहाँ अपन अमूल्य समय जे हमर ब्लॉग देखै में देलो तही लेल बहुत - बहुत धन्यवाद... !! प्रेम स कहू" जय मैथिली, जय मिथिला, जय मिथिलांचल(बिहार),जय श्यामा माई -

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